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नागपंचमी

>> रविवार, 22 अगस्त 2010

दिनांक 14 अगस्त, शनिवार की छुट्टी थी और इसीलिए सुबह से काम धीमी गति से चल रहा था। इन्द्रदेव भी सुबह से मेहरबान थे। बारिश की ही वजह शायद अखबार वाला देर से आया, देर मतलब साढ़े आठ बजे। अब इसे तो देर ही कहेंगे। इधर अखबार आया और उधर मेरी बेटी प्रबोधिनी का सुप्रभात हुआ। पत्नीजी ने भी आव देखा न ताव, तुरंत बिटिया को हमारे हवाले किया और निर्देश (आप आदेश भी समझ सकते हैं) दिए कि आज उसे स्कूल के तैयार करके हम एक अच्छे पिता होने का सबूत दें। स्वीकार करना ही एकमात्र विकल्प था हमारे सामने, सो सौंपा गया काम पूरा किया। तो बिटिया के साथ-साथ हमें भी तैयार होने में बज गए साढ़े नौ।

अखबार उठाकर देखा, तो नागराज की तस्वीर के साथ लिखा था 'आज नाजपंचमी है'। ये तो भली करी पेपर वालों ने कि फ़ोटू देखकर त्यौहार मालूम पड़ गया, वरना सुबह से गली में ऐसा कोई माहौल ही नहीं था जिसससे लगे कि आज कोई खास दिन है। न तो किसी नाग वाले ने आवाज लगाई, 'पिलाओ नाग को दूध' और न ही कोई ढोल वाला दरवाजे पर मंगल ध्वनि करने आया। आज से छ:-सात साल पहले इन्दौर शहर में नागवाले कभी-कभी दिखाई दे जाते थे। पर अब तो वन विभाग और पुलिस का महकमा तत्पर रहता है, जैसे ही कोई नागवाला दिखा उसे पकड़कर नागवाली पिटारी जब्त कर ली जाती है और नागों को जंगल में छोड़ दिया जाता है। इसलिए बेटी को अखबार में नाग का फ़ोटो दिखाया और बताया कि आज नागपंचमी का त्यौहार है। वो बहुत खुश हुई कि शायद आज स्कूल न जाना पड़े। पर जल्दी ही उसकी खुशियों पर तुषारापात हो गया जब हमने बताया कि आज भी स्कूल तो जाना ही है। खैर अभी चार साल की उम्र में उसे नागपंचमी से कोई लेना-देना नहीं है।

बिटिया 10:45 पर स्कूल चली गई। श्रीमतीजी ने रसोई की दीवार पर गेरू से नागदेव का पारंपरिक रेखांकन कर उसी का पूजन किया। हम थोड़ा नास्टेलजिया गए थे। ऐसा अक्सर हो जाता है......फ़्लैश बैक..... '70 का दशक, धार शहर में पीपली बाजार....उम्र 8-10 साल। ईस्टमैन कलर की छवियाँ जेहन में तैर रही हैं। उस समय नागपंचमी की छुट्टी होती थी। इसलिए बच्चों के लिए त्यौहार का मज़ा दोगुना हो जाता था। बच्चे सुबह से तैयार होकर घर से बाहर मोहल्ले में निकल आते थे। हमारा घर T जंक्शन पर था। तीनों दिशाओं में 8-10 साथ की उम्र के हिसाब से लगभग 15 घरों तक हमारे भ्रमणपथ की सीमारेखा थी। तो हम भी आस-पास के समवयस्क साथियों के साथ निकल पड़ते नागपंचमी का जायजा लेने। सुबह से दसियों नागवाले आवाज़ें लगाने लगते ..... पिलाओ नाग को दोऽऽऽऽऽध...... या ...... नाग को दूध पिलाऽऽऽऽऽओ। हम बच्चों के लिए रोमांच के क्षण वे होते जब किसी के घर नागवाले को पूजा के लिए बुलाया जाता। नाग वाला घर की देहरी पर बैठ जाता और अपनी पोटली में से नाग की पिटारी निकालता। सभी बच्चों की आँखे पूरी खुलकर झपकना बंद हो जाती कि एक भी पल चूक न जाए। ओह, अब नागराज के दर्शन हुए, पिटारी में कुंडली मारे बैठे या लेटे हैं। नाग वाले जो आमतौर पर काल‍बेलिया समाज के होते थे, नाग के आराम में खलल डालकर उसे फन उठाने को मज़बूर करते। अब तक घर की महिला दूध का कटोरा और कुंकुम-अक्षत आदि पूजन सामग्री ले आती। नाग वाले कटोरे में नाग का मुँह डालकर दूध पिलाने की एक्टिंग करता और नाग से भी करवाता। हम सभी बच्चे बहुत ही ध्यान से कटोरे में दूध का स्तर जाँचते कि कितना दूध पिया, दूध तो उतना ही बना रहता। अब हम सभी बच्चे आपस में बात करके यह मान लेते कि सुबह से ही दूध पी रहा है, तो अब तक पेट भर गया होगा। अब नाग का मुँह कटोरे बाहर निकाल लिया है और उसे पूजन करने वाली काकी, बुआ, मासी, दादी, नानी, भाभी के सामने कर दिया है। (हाँ, खून का रिश्ता हो या न हो उस समय पूरे मोहल्ले में इन्हीं पारिवारिक संबोधनों का उपयोग होता था।) नाग का मुँह मुट्ठी में ऐसा पकड़ा होता कि साँस भी बुमश्किल आ-जा पाती होगी। एक और बात हम बच्चे खासतौर पर देखते थे, वह थी नागराज की लम्बाई। जिस बच्चे के घर पर 3-4 फ़ीट का नाग आ जाता वह चार दिनों तक अपनी गरदन नाग के फन के समान उठाए घूमता रहता। और जिन बच्चों के घर छोटे डेढ़ फुटिये
बड़े होने पर भी कई लोग ऐसा ही करते रहते हैं, परिवार में, पड़ौस में, नातेदारियों में, समाज में, ऑफ़िस में - खासकर नेताओं, अधिकारियों या रसूखदारों से सम्बन्ध बताने के लिए।
नाग आते वे बेचारे हीन भावना से ग्रस्त हो जाते और बड़े नाग वाला बच्चा इन्हें हेय दृष्टि से देखता। अब ये नाग की साइज़ तो पूरी तरह से गैम्बलिंग थी। जब तक पिटारी न खुले तब तक नाग की लंबाई पता ही नहीं चलती थी। कई बार तो पड़ौस में नाग देखकर बाँछें खिल जातीं। अब ये कहाँ होती हैं और कैसे खिलती हैं पता नहीं। हम दौड़कर माँ के पास जाते और आँचल पकड़कर अनुरोध करते कि पास वाली बबली के घर पर जो नाग वाला है ना, उसे हम भी बुलाएँगे। पर माँ तो घर के काम के हिसाब से पूजन करती थीं, कोई मुहूर्त नहीं होता था बस अंदाजन 12 बजे से पहले पूजन कर लेते थे। हम माँ के मना करने पर मन मसोस कर रह जाते। घर पर नागवाले के आने पर स्थिति यह होती कि हम घर के अंदर और मोहल्ले के बच्चे देहरी के बाहर से झाँकते रहते। कुछ हिम्मती और ज्यादा मित्रवत बच्चे अंदर आकर हमारे पास खड़े हो जाते और गर्व से बाहर वालों को देखते कि देखो हमारी पहुँच इस घर के अंदर तक है। कमोबेश ऐसा हर घर में होता बस अंदर और बाहर वाले बच्चे बदल जाते। बड़े होने पर भी कई लोग ऐसा ही करते रहते हैं, परिवार में, पड़ौस में, नातेदारियों में, समाज में, ऑफ़िस में - खासकर नेताओं, अधिकारियों या रसूखदारों से सम्बन्ध बताने के लिए। नागवाले के साथ कभी-कभी कोई छोटा बच्चा होता, जिसके वे पुराने कपड़ों की माँग करते। नागों की चर्चा अगले दो-चार दिनों कर स्कूल में चलती रहती। सभी बच्चे अपने-अपने ज्ञान का आदान प्रदान करते रहते मसलन - मूँछों वाला नाग, इच्छाधारी नाग, मणिधारी नाग, नागिन का बदला, मंत्र से जहर उतारना आदि-आदि।

नागपंचमी के दिन शाम को धार में लाल बाग के पास मेल लगता था। अब भी लगता है। जिसे भुजरिया का मेला कहते हैं। वहाँ कई नागवाले शाम को आकर बैठ जाते हैं और बस ऐसे ही नागों का सार्वजनिक प्रदर्शन होता है, चढ़ावे में कुछ पैसे भी मिल जाते हैं। बगीचे में मिट्टी की एक बांबी जैसी रचना की जाती है। यहाँ लोग नागदेव की पूजा करते हैं। बगीचे के आस-पास की सड़कों पर झूले, खाने-पीने की वस्तुओं और खिलौनों दुकानें होती हैं। आज भी कई बार यहाँ मिट्टी के खिलौने दिखाई दे जाते हैं। गुब्बारे, पिपहरी वाले घूमते रहते हैं और आजकल चीन में ‍बने खिलौने भी रखते हैं। निपट भारतीय कस्बे-देहात का माहौल होता है। दंगल का आयोजन भी होता है।

आज इन्दौर में ऐसे आयोजन नहीं के बराबर रह गए हैं क्योंकि यह शहर बेतहाशा भागते हुए मेट्रो सिटी बनने की जिद पर अड़ा है। मेरी बेटी इन मेले-ठेले के बारे में तभी जान पाएगी जब मैं उसे तीज-त्यौहारों या मेलों के अवसर पर धार या आस-पास किसी छोटे कस्बे में ले जाऊँ।

जो लोग इस लेख को झेलते हुए यहाँ तक पहुँच गए हैं उनकी वीरता को नमन और धन्यवाद तथा अब अंत में कुछ तंत की बात। तंत शब्द मालवी में सार या तथ्य के समकक्ष होता है। जो लोग '70 के दशक में मध्य प्रदेश में पढ़े हैं उन्होंने कक्षा 3 या 4 में हिन्दी की पुस्तक में 'नागपंचमी' कविता पढ़ी होगी। पाठ भी शायद चौथा रहा होगा। पुस्तक का चौथा पाठ होने से यह होता था कि अगस्त माह में पाठ 4 और नागपंचमी का त्यौहार कुछ दिनों आगे-पीछे आते थे। इसलिए कविता बहुत अच्छी लगती थी। दु:ख की बात यह है कि आज मुझे पूरी कविता याद नहीं है। शुरू की चार लाइनें इस प्रकार हैं -
सूरज के आते ही भोर हुआ
लाठी लेझिम का शोर हुआ
ये नागपंचमी झम्मक झम
ये ढोल-ढमाका ढम्मक ढम।

कविता भूल जाना मतलब समय के दौर का धुंधला जाना है। किसी घिसी रिकॉर्ड, कैसेट या सीडी जैसी अटकती यादें। इससे ज्यादा कुछ लिखना मुनासिब नहीं होगा क्योंकि श्री विष्णु बैरागीजी ने जो लिख दिया है वो शायद ही कोई लिख सके। कविता के खो जाने को जो भाव उन्होंने दिए हैं वो संग्रहणीय हैं। इसे यहाँ ज़रूर देखें। कविता का बड़ा हिस्सा आकाशवाणी वाले यूनुसजी ने यहाँ उपलब्ध कराया है। यदि पाठकों में से किसी को पूरी याद हो या कहीं से मिल जाए तो मुझे या यूनुसजी मेल से भेज दें या स्वयं अपने ब्लॉग पर प्रकाशित करके हमें सूचित कर दें।

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गिद्धभोज

>> मंगलवार, 6 जुलाई 2010

भी परसों शाम को बन-ठन के निकले, आख़िर शादी में जीमने जाना था। जीमना नहीं समझे, मालवी में भोजन करने को जीमना कहते हैं। रास्ते में घांसीरामजी मिल गए। घांसीरामजी खालिस मालवी कैरेक्टर हैं। हमने पूछा किधर की तैयारी है। छूटते ही बोते, 'अरे वो फलानी जगह गिद्धभोज में जई रियो हूं।' ये सुनते ही मेरे दिमाग में मन्नू भंडारी का महाभोज चक्कर काटने लगा। हैरानी से गिद्धभोज को जरा स्पष्ट करने को कहा तो बिल्कुल अनोखी बात सामने आई। वो भी उसी शादी में जा रहे थे जहाँ मैं जा रहा था और वे भोजन की बफ़े प्रणाली को गिद्धभोज कह रहे थे। मैं तो अवाक रह गया, इस निपट देहाती ने बफ़े को कैसी अनोखी उपमा दी है।

खैर वहां पर पहुंचे तो लोग अभी आ रहे थे और जो आ गए थे वे एक दूसरे से मेल-मुलाकात कर सामाजिकता बढ़ा रहे थे। कुछ देर बाद जब भोजन शुरू हुआ तो थोड़ी देर तक तो ठीक-ठाक रहा। लेकिन जब और अधिक मेहमान आ गए तो भोजन के लिए तय जगह थोड़ी छोटी लगने लगी। लोगों में इतना धीरज नहीं था कि कुछ लोगों का भोजन हो जाने तक रुक जाएं। दृश्य ऐसा था जैसे लोग एक दूसरे के ऊपर से खाने पर टूट पड़े हों। अब मुझे ये बफ़े पार्टी वाक़ई गिद्धभोज लग रही थी। हर स्त्री-पुरुष अपनी प्लेट एक हाथ में लेकर पंडाल में उड़ रहे हैं और दूसरे हाथ में चम्मच या कांटा लेकर गुलाब-जामुन, दहीबड़ा, नूडल्स, मंचूरियन, आदि नाना प्रकार के व्यंजनों के शिकार को उदरस्थ कर रहे हैं।

मेरी दृष्टि कुछ धुंधला गई है.... हां अब ठीक नज़र आ रहा है...ओह मैं देख रहा हूं ऊपर आसमान में एक व्यक्ति उड़ रहा है। हां गिद्ध ही लग रहा है, लेकिन चेहरा तो एंडरसन का है और पंखों पर यूनियन कार्बाइड लिखा है। अरे ये क्या... नीचे पंडाल की जगह हज़ारों भोपाल निवासियों के शव दिखाई दे रहे हैं। अरे वहां तो कुछ देसी चेहरे वाले गिद्ध भी उड़ रहे हैं। ओह ये तो इंसानों को अपनी प्लेटों में डाले जा रहे हैं। अब तो पूरे आसमान में गिद्ध ही गिद्ध दिखाई दे रहे हैं। लेकिन ये तो नरभक्षी नहीं बल्कि सर्वभक्षी लग रहे हैं। लो... अभी एक गिद्ध ने एक सड़क को सांप समझकर निगल लिया है। उधर बहुत से हैं जो सड़कें खा रहे हैं, कुछ ने बांध और पुल भी खा लिए हैं। स्टेडियम भी बड़े स्वादिष्ट होते हैं, खेल संघ की चटनी के साथ तो मज़ा दोगुना हो जाता है...यमीऽऽऽ...कई बार खिलाड़ियों को और यदि महिला खिलाड़ी हो तो उनकी इज्जत को भी चख लेते हैं। आखिर गिद्ध हैं तो पेट भरना ज़रूरी है, यदि टैंक पूरे ना पड़ें तो शहीदों के कफन भी खा लेते हैं। भई लाजवाब हैं ये गिद्ध, एक समूह के हों या अलग समूह के, अक्सर मिलबाँट कर खाते हैं। भैंसों का चारा खा लेते हैं, तो गरीबों का राशन, मिट्टी का तेल वगैरह भी उदरस्थ कर लेते हैं। बाढ़, सूखा, भूकम्प आदि कई तरह की राहत राशियां इनका प्रिय व्यंजन है। विभिन्न सरकारी योजनाएं रोज़ के नाश्ते के लिए होती हैं। कुछ गिद्ध हाई प्रोफ़ाइल होते हैं जो बड़े-बड़े सौदों में कमीशन खाते हैं और कई तो देश की अस्मत और सुरक्षा भी हज़म कर जाते हैं। कुछ छुटभैये गिद्ध भी हैं जो फ़ाइलें, अर्जियाँ, पेंशन, स्कॉलरशिप और आम जनता के काग़ज को खाकर ही संतुष्ट हो लेते हैं। कई खाते नहीं हैं बल्कि काग़ज़ात दबाकर शिकार में हिस्सा बँटा लेते हैं। कुछ गिद्ध इज्जत बचाने के लिए अपनी संतान को भी मार देते हैं। ये गिद्ध चाहते हैं कि उनके बच्चों की शादी उनके धर्म और जाति में ही हो लेकिन गोत्र या गाँव में ना हो।

उनके गले में रंग बिरंगे दुपट्टे हैं, कुछ के सिर पर टोपी और कुछ के बदन पर वर्दी है। कुछ गिद्धों ने रंगीन चश्मे भी लगा रखे हैं। इन चश्मों का रंग हरा, भगवा, नीला और लाल या कुछ भी हो सकता है। आजकल सफेद चश्मा भी प्रचलन में है। ये चश्मे वाले गिद्ध बिना चश्मे वालों से ज़्यादा ख़तरनाक होते हैं। जैसे लाल रंग वाले गिद्ध लोगों को अक्सर दूसरे चश्मे वाले गिद्धों से डराते हैं और फिर...सुरक्षा और आज़ादी के नाम पर खुद ही पब्लिक को हजम कर जाते हैं। ये चश्मे वाले गिद्ध कभी चश्मा हटाकर दुनिया को देखना ही नहीं चाहते।

वैसे तो गिद्धों का धर्म जाति आदि नहीं होते, फिर भी ये खुद को किसी ख़ास धर्म के लोगों का हितैषी, संरक्षक, झंडाबरदार आदि बताते हैं। ये धर्म के नाम पर भी लोगों को जीम रहे हैं। ये धार्मिक गिद्ध अपना ही राग अलापते रहते हैं और विविधता से इन्हें नफरत है। ये चाहते हैं पूरी दुनिया में बस इनके जैसे ही गिद्ध हों, दूसरे या तो खत्म हो जाएं या इनके जैसे हो जाएं।

मुझे और अधिक साफ़ दिखाई देने लगा है। पूरे देश के आसमान में गिद्ध ही गिद्ध उड़ते नज़र आ रहे हैं। वे पूरे देश को नोंच-नोंच के खा रहे हैं। पर इन छोटे-बड़े गिद्धों के भोजन चक्र में अंतिम रूप से आम जनता ही कलेवा बन रही है...लेकिन मैं देख रहा हूँ कि इस आम जनता में भी जो व्यक्ति गिद्धों को कोसता रहता है, वह भी जब मौका मिलता है तो गिद्ध बनकर अपने से कमज़ोर को शिकार बना लेता है। देश की पूरी आबादी ही गिद्ध हो गई है कुछ स्थायी और कुछ अस्थायी। सारा मुल्क मरघट में तब्दील हो गया है। सांय-सांय करता सन्नाटा मेरे कानों को चीर रहा है।

पूरे देश के आसमान में गिद्ध ही गिद्ध उड़ते नज़र आ रहे हैं। वे पूरे देश को नोंच-नोंच के खा रहे हैं। पर इन छोटे-बड़े गिद्धों के भोजन चक्र में अंतिम रूप से आम जनता ही कलेवा बन रही है...

स्तब्ध देख रहा हूँ मैं सबकुछ गिद्धों के मुंह में जाते हुए-देश का धन, संसाधन, संपदा, सड़क, रेल, पुल, बांध, जंगल, प्राणी, जनता और ठीक वैसे ही अर्जुन ने कृष्ण के विराट रूप में प्राणियों को प्रवेश करते देखा था। मुझे तत्वज्ञान प्राप्त हो गया है कि मैंने मनुष्य जन्म पाया है तो अपने कर्म करता रहूँ और गिद्ध में कनवर्ट होने का विचार भी मन में ना लाऊँ। ओह... वो मेरी ही ओर आ रहा है, लेकिन मेरा तो किसी भी दुपट्टे, टोपी, वर्दी या चश्मे वाले गिद्ध से कोई सीधा कनेक्शन नहीं रहा है। शायद उसने मेरी पोस्ट पढ़ ली है। वो मेरे सिर पर मंडरा रहा है...उसके विशाल डैनों की हवा से मेरे सिर के बचे बाल लहरा रहे हैं। आह... उसने अपने नुकीले नाखूनों वाले पंजों से मेरे दोनों कंधे जकड़ लिए हैं। वो पकड़कर झकजोर रहा है... मैं पसीने से लथपथ...चीखना चाहता हूँ...मेरी चेतना मेरा साथ छोड़ रही है...

वो आवाज़ दे रहा है...सुनो...अरे सुनोऽऽऽ...
इंद्रियाँ सजग हुईं। ओह! मेरी पत्नी मेरे दोनों कंधों को पकड़ कर झकझोर रही है।
'सुनो! आज उठना है या नहीं?'
मैं बिस्तर पर हूँ और पत्नीजी जगाने की भरसक कोशिश कर रही हैं...तो ये श्रीखंड, राजभोग, पेटिस, कुल्चे, पनीर आदि सूतने से उत्पन्न खुमारी से परिपूर्ण सपना था।

गिद्ध दृश्य पटल से चले गए हैं। मैं भी नहाकर अखबार के पन्ने पलटूँगा और काम पर चला जाऊँगा और फिर वही ज़िन्दगी की भागमभाग, वही मारामारी शुरू हो जाएगी जिसे सरल भाषा में मन को तसल्ली देने के लिए रूटीन कहते हैं। अच्छा हुआ वो सपना ही था लेकिन वो केवल सपना ही था क्या? गिद्ध भी तो अपने रूटीन पर चल पड़े होंगे।

इति गिद्धम।

अस्वीकरण: ये विचार मेरे सपने की खुराफातें हैं। इनका किसी भी ‍जीवित या मृत गिद्ध अथवा मानव से कोई संबंध नहीं है। ना ही इसमें गिद्धों का अपमान करने की कोई कोशिश की गई है। पशु-पक्षी अधिकार वाले महानुभाव अन्यथा न लें। गिद्ध आज विलुप्तप्राय प्रजाति है जो प्रकृति की सफ़ाई कर उसे संतुलि रखती है। आइए उनके संरक्षण में सहभागी बनें।

चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: Satire, Vulture, व्यंग्य, गिद्ध,


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सुर्ख होता 'लाल' वाद

>> गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

.....उन्होंने 72 को मार दिया। तो क्या हुआ? आखि़र सरकार को इस 'हरे शिकार' की क्या ज़रूरत थी? वैसे वे लोग भी तो शिकार ही कर रहे हैं। उन आदिवासियों की गरीबी, भूख, अशिक्षा, विश्वास, निर्मल मन का शिकार ही तो कर रहे हैं। वे कहते हैं कि वे इन वनपुत्रों को उनका हक़ दिलवा रहे हैं। जो हक़ गणतंत्र से नहीं मिला वो गनतंत्र से दिला रहे हैं। वनोपज, शिकार, प्राचीन खेती पर निर्भर ये लोग एक तरह से जंगलराज में ही गुजर करते हैं। शिकार करो या शिकार हो जाओ। अभी इनका शिकार माओवादी कर रहे हैं। यदि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सरकारी मशीनरी ठीक से ध्यान देती तो सरकारी आदमी खाओवादी बनकर इनका शिकार करते। मतलब इनका आखेट होना तो तय था। हो सकता है जिन स्थानीय लोगों ने कभी इन विभिन्न 'वादियों' को अपना मददगार समझा हो वे आज स्वयं को असहाय और ठगा महसूस कर रहे हों। उनकी स्थिति फ़िल्मी माफ़िया के चंगुल में फँसे हीरो के जैसी हो गई है कि अपनी मर्जी से आ तो सकते हो परंतु जा नहीं सकते। बिल्कुल वन-वे ट्रैफ़िक। इतने "सालों" की सरकार विरोधी गतिविधियों, हिंसा और समांतर सरकार चलने पर भी लोगों का कोई भला हुआ होगा या उनकी दैनिक ज़रूरतें भी पूरी हो गईं होंगी, ऐसा लगता नहीं है। नक्सली प्रभावित क्षेत्र की जनता निश्चित रूप से सांप-छछूंदर की स्थिति में होगी। इस लाल आंदोलन को चलाने वालों में अब वैसे ही तत्वों की घुसपैठ हो गई है जैसे शहरों में हफ्ता वसूली, रंगदारी आदि करने वाले एक तय इलाके में समांतर सरकार नहीं तो भी खौफ की चक्की तो चलाते ही हैं जिनमें शहरी आम आदमी पिसता है। आंदोलन के प्रणेता कानू सान्याल ने इस भटकाव को देखकर आत्महत्या कर ली। जब नक्सलवाद जन्मा होगा तो संभवत: उसके लक्ष्य उचित रहे होंगे क्योंकि ये आंदोलन प्रशासनिक कुप्रबंधन के खिलाफ था, परंतु लक्ष्य प्राप्ति के तरीक़ों के बारे में पूरी तरह से ऐसा नहीं कहा जा सकता। नक्सलबाड़ी से चली यह धारा समय, परिस्थिति, स्थान के कारण अपना प्रवाह बदलती गई और सब जगहों की गंदगी भी अपने साथ समेटती गई। समय के साथ उलझने भी बढ़ती गईं। जब साधन ही ग़लत हो गए तो दिशाहीनता की स्थिति आनी ही थी।

आंदोलन अधिकतर वहाँ फैला जहाँ भूखे-अशिक्षित लोग थे क्योंकि उन्हें बरगलाना आसान है। विकसित, शिक्षित, रोजगार में लगी आबादी में इनकी पैठ संभव नहीं है। उन लोगों का भी इसमें योगदान है जो शिक्षित हैं पर उनके पास काम नहीं हैं या फिर काम करना नहीं चाहते हैं, या फिर वे लोग जो शिक्षित तो बहुत अधिक हैं लेकिन उनकी सोच, उनकी दृष्टि पर एक विचारधारा का चश्मा चढ़ा है। जब अंकुर फूटा था तब ही इस खरपतवार को पहचानकर उखाड़ फेंकना था। पर कुछ लोगों ने इसे खाद पानी देना शुरू किया, आज भी दे रहे हैं। नतीजा सबके सामने है। देश में जहाँ प्राकृतिक और खनिज संपदा है वहीं पर इसकी लाल जड़ें फैल गई हैं। वर्तमान में भी इनके नेता या संगठन प्रमुख की गिरफ़्तारी पर कुछ त‍थाकथित लोकतंत्र बचाऊ संगठनों ने दिल्ली में प्रदर्शन किया है। कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं के बयान आए हैं कि दंतेवाड़ा का ये नक्सली हमला ऑपरेशन ग्रीन हंट का दुष्परिणाम है। सुरक्षाबलों पर आरोप लग रहे हैं कि वे गाँवों में घुसकर निर्दोष आदिवासियों से मारपीट करते हैं। ठीक ऐसा ही हम काश्मीर मामलों में भी सुनते आ रहे हैं। इन्हें आतंकवादी नहीं कहा जाता तो बस इसलिए कि ये इसी देश के नागरिक हैं? वरना इनमें और बाहर से आकर आतंक फैलाने वालों में क्या अंतर है? दंतेवाड़ा में सशस्त्र सुरक्षा बल की बख्तरबंद सुरंगरोधी वाहन को उड़ा देने वाले हथियार इन्हें पास-पड़ौस से या दूर-दराज से ही मिले होंगे, जहाँ इन्हें प्रशिक्षण भी मिला होगा। सात राज्यों में लगभग 150 जिलों में नक्सलवादी हिंसा की आग फैल चुकी है और निश्चित रूप से बाहरी शत्रु इसे हवा देकर देश को अस्थिर करने का मंसूबा पाले बैठे होंगे। यदि ऐसा ही चलता रहा तो उत्तर-पूर्व, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और दक्षिण के राज्यों में लाल गलियारा बन जाएगा जो नेपाल होते हुए सीधे चीन की ओर जाएगा।

यह बात भले ही सत्य हो कि कानू सान्याल ने वंचितों के लिए इस विचारधारा को जन्म दिया, परंतु संभवत: भारतीयता के अभाव की वजह से लोहिया और जेपी के आंदोलन के जैसा देशव्यापी समर्थन और सफलता नहीं मिली। आज भी देश के विभिन्न भागों में, जहाँ नक्सल या माओ समस्या नहीं है, सामाजिक विषमताएं अवश्य हैं, सरकारी योजनाएँ, परियोजनाएँ व अन्य सामाजिक सरोकार समाज के हर वर्ग को बराबरी से उपलब्ध नहीं हो सके हैं, फिर भी इस विषमता की खाई को पाटने के लिए ग्रामीणों या सुरक्षाकर्मियों की लाशों नितांत ही ग़ल‍त और मूर्खतापूर्ण रास्ता है। वंचितों को हक़ दिलाने और सामाजिक समसरता स्थापित करने के अहिंसक तरीक़े भी हैं। आख़िर गाँधी इसी देश में हुए हैं और आज भी पूरे विश्व में प्रासंगिक हैं।

अब लगता है पानी सर से ऊपर जाने में देर नहीं है। सभी राजनीतिक दल एकजुट होकर, निजी स्वार्थ से परे सोच रखकर दृढ़ इच्छाशक्ति से इस फांस को निकाल सकते हैं। लिट्टे का उदाहरण सामने है। समय रहते उपाय नही किए गए तो सालों बाद दिल्ली से ये बयान भी नहीं आ सकेंगे कि ये कायराना हरकत है, ये उनकी हताशा का परिणाम है, इसके लिए कठोर कदम उठाए जाएँगे, इसमें विदेशी तत्वों का हाथ है।

[प्रस्तुत आलेख दंतेवाड़ा में 6 अप्रैल 2010 को सुरक्षाकर्मियों पर घात लगाकर किए गए हमले के प्रतिक्रियास्वरूप है। इसमें दी गई जानकारी और विचार मेरी सामान्य समझ के अनुसार हैं। पाठक की इससे सह‍मति या असहमति हो सकती है या उनके अनुसार इसमें कमियाँ भी हो सकती हैं।]

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किशोर: प्यार अजनबी है

>> सोमवार, 1 मार्च 2010

पिछले दिनों किशोर ‍कुमार पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री देखने को मिली। मोज़र बेयर इंटरटेनमेंट लि. द्वारा निर्मित और संदीप राय द्वारा निर्देशित 'ज़िन्दगी एक सफर किशोर कुमार' लगभग दो घंटे बीस मिनट की फ़िल्म है। इसमें किशोरदा के परिजनों के साथ-साथ उन लोगों के साक्षात्कार भी हैं जिन्होंने उनके साथ काम किया है, जिन्होंने उनके साथ समय गुज़ारा है, जो उनके समकालीन रहे हैं। सभी लोगों से चर्चा, मशहूर रेडियो उद्घोषक अमीन सयानी साहब ने की है। इस फ़िल्म को देखकर लगता है कि यह बहुत साल पहले शूट की गई होगी। अमित कुमार बहुत युवा नज़र आए हैं और 'जादूगर' और 'तूफान' के दौर के अमिताभ हैं, शम्मी कपूर के बचे बाल काले हैं और खिचड़ी दाढ़ी में सफेदी कम। आज तक किशोर कुमार के बारे में पत्र, पत्रिकाओं, दूरदर्शन आदि से ही जानने को मिला था। इस फ़िल्म से किशोर दा के जीवन और शख्सियत के बारे में थोड़ा और जानने को मिला। फिर भी ऐसा लगता है कि यह आदमी वह नहीं है जो ऊपर से लोगों को नज़र आता रहा या फिर उसने ही खुद को लोगों के सामने ऐसा पेश किया।



किसी फ़िल्म का नायक किशोर कुमार हो तो आमतौर पर यही लगता है कि अभी वो नाचता-गाता, यूडलिंग करता आएगा और अपनी हरकतों से सब हँसाएगा। पर शायद किशोरदा अपने अंदर पता नहीं कितना दर्द समेटे हुए थे। उनकी गाए हुए गीत सुन कर लगता है कि गीतो में पीड़ा उन्होंने अपने अंदर से उड़ेली थी। लोग या फिर मी‍डिया उनकी कंजूसी या खब्त के किस्से बयां करते रहे और हम कभी पूरी तरह से नहीं जान पाए कि वो शख्सियत क्या थी। क्या वो सिनिक थे या फिर एक टेलेंट की कुछ सनक थी। या दूसरे शब्दों में कहें तो वो एक मूडी इंसान थे, अब इतनी छूट तो मेरे ख्याल से एक कलाकार को मिलनी ही चाहिए। शायद उन्होंने एक दायरा बना रखा था जिसके अंदर वो शायद ही किसी को आने देते हों। एक स्पेस, जो उस हरफनमौला इंसान ने तय किया था। उसका अपना स्पेस जिसमें बहुत ही आत्मीय लोगों को जगह मिली हो।


खैर, मैं उस शख्स पर कुछ लिखूँ तो वो सागर में से दो बूँद के बराबर होगा। मैंने उस डॉक्यूमेंट्री में उनकी एक ऐसी फ़िल्म के कुछ सीन देखे जो डिब्बाबंद होकर रह गयी। फ़िल्म थी 'प्यार अज़नबी है' और यह किशोर कुमार प्रोडक्शन के तहत ही बन रही थी। हीरोइन, किशोरदा की पत्नी लीना चंदावरकर थी, जो उस समय उनकी पत्नी बनी नहीं थीं। फ़िल्म के नायक किशोर ही थे। निर्माता, निर्देशक, गायक और संगीतकार भी किशोर कुमार थे। फ़िल्म का लेखन और संवाद आदि भी उन्हीं के थे। संभवत: गीत भी उन्हीं के रहे हों, अभी खोजबीन पर इसकी जानकारी नहीं मिली है। ये फ़िल्म तो बनते-बनते रह गई, पर इसका संगीत भी बाज़ार में नहीं आ पाया। उस डॉक्यूमेंट्री में दो गीतों की झलक बताई गई है। दोनों अद्भुत हैं। किशोर दा ने गीत ऐसी रागिनी में बाँधे हैं कि सुनने वाला भी बँध कर रह जाता है। एक गीत का मुखड़ा 'प्यार अज़नबी है' है, इसकी कंपो‍ज़िशन इतनी सरल है कि जो बंदा गाना न जानता हो वह भी साथ में गुनगुनाने लग जाए, पर सरल होने के साथ ही बहुत ही मधुर भी है। गीत पियानो के पीस से शुरू होता है। धीरे से किशोर मुखड़े को शुरू करते हैं। मद्धम लय में रिदम लहराने लगती है और गीत उस पर तैरता हुआ सीधे दिल में उतरने लगता है।
किशोर के लिए किशोर। ना देव के लिए, ना राजेश के लिए और ना ही अमिताभ के लिए। महसूस होता है जैसे किशोर ने खुद के लिए गाया हो, न केलव पर्दे पर बल्कि असल जीवन में।
आवाज़ बिलकुल गोल्डन वॉइस, पीड़ा ऐसी जैसे गीत नहीं किसी ने पिघला सोना कान में उड़ेल दिया हो। हॉन्ट करती चिरयुवा आवाज़, किसी धुंधभरी सुबह में कोई भटकी आत्मा मुक्ति का गीत गा रही हो। जैसे कोई मांझी अपनी कश्ती लिए गाता जा रहा है अपने साहिल की तलाश में। तलाश किशोर की जीवन में किसी मंजिल की, किसी ठहराव की। बरसों की भटकन को जैसे एक ठाँव की ज़रूरत हो।


भटकन-पहला विवाह, रूमा गुहाठाकुरता, दो जीनियस एक साथ न रह पाए। अलग होना पड़ा। फिर मधुबाला का आगमन-दिलीप, भारत भूषण, प्रदीप कुमार से विवाह न होने का दर्द, किशोर-पहली पत्नी के विछोह का दुख। लोगों ने कहा प्रेम नहीं समझौता। किशोर दा शादी से पहले ही जानते थे वो नहीं बचेगी पर शादी की और अंत तक निभाया। योगिता बाली-शायद तेल और पानी का मेल। शायद यही भटकन किसी किनारे की खोज में थी। क्या किशोरदा फ़िल्म बनाने के लिए फ़िल्म बनाई या लीना में अपने जीवन का लक्ष्य ढूँढने के लिए ये गीत रचे। जो भी हो गीत में एक अचीन्हा दर्द है, बारिश मे दिनों में मोर की तड़पभरी कूजन जैसा। पर्दे पर भी किशोर के चेहरे पर यही दर्द नज़र आता है। पार्टी में जोड़े थिरक रहे हैं और किशोर एक मेज के पीछे बैठे गा रहे हैं। दूर क्षितिज पर अदृष्ट को देखती आँखें और अतल गहराई से आती आवाज़। एक अलख जगाता जोगी। जोगी किशोर, ठौर की तलाश में किशोर।

पूरे गीत में पियानो रिदम को सहारा देता रहता है, सैक्सोफ़ोन के सुर साँप से लिपट जाते हैं। इंटरल्यूड में पियानो अपने बोझ को धीमे से सैक्सोफ़ोन को थमा देता है और फिर वापस ले लेता है। साइड रिदम गैप को भरती चलती है। दो अंतरों में गीत पूरा होता है और हम निश्चल रह जाते हैं। बाहर सन्नाटा! पर अंदर किशोर की आवाज़ कहीं गहरे उतर गई है और गीत गूँज रहा है 'प्यार अज़नबी है'। पूरी कायनात में एक महक सी घुल गई है। लगता है जैसे दसों दिशाओं से किशोर ने गाना शुरू कर दिया है, सराउंड किशोर इफ़ेक्ट!

बार-बार सुनने पर भी अबुझ प्यास जगाने वाले गीत की ‍कविता पढ़िए-

प्यार अजनबी है जाने कहाँ से आए

जाने कहाँ से आए

प्यार अजनबी है जाने कहाँ से आए
प्यार अजनबी है जाने कहाँ से आए
कब जीवन में फूल खिलाए कब जीवन में फूल खिलाए
कब आँसू दे जाए

प्यार अजनबी है जाने कहाँ से आए

प्यार है वो रंगो का बादल जीवन पर जो छाए
मन चाहे तो बरसे वरना बिन बरसे उड़ जाए
कभी ये मन की प्यास बुझाए
कभी ये आग लगाए
रेत में ये मोती सा चमके शबनम सा खो जाए


प्यार अजनबी है जाने कहाँ से आए
फिर भी इसके पीछे पीछे मन दीवाना दौड़े
जब तक तन में सांस चले ये आस न इसकी छोड़े
एक पल मन को चैन ये दे तो इक पल चैन चुराए
ये अनदेखे ख्वाब सजाए ख्वाब यही दिखलाए


प्यार अजनबी है जाने कहाँ से आए
कब जीवन में फूल खिलाए कब जीवन में फूल खिलाए
कब आँसू दे जाए
प्यार अजनबी है जाने कहाँ से आए
जाने कहाँ से आए
जाने कहाँ से आए


अब गीत सुनिए:



और ये है छोटा सा उपलब्ध वीडियो:







दूसरे गीत के ऑडियो और वीडियो दोनों ही एक मिनट से भी कम अवधि के मिले हैं। आमतौर पर किशोर की आवाज़ में गज़ले कम ही सुनी हैं पर यह गीत बताता है कि यदि किशोर गज़ल गायकी में उतरे होते वहाँ भी शीर्ष पर रहते। साइड रिदम नाव के चप्पुओं से ताल मिलाती है। प्रेम को अभिव्यक्ति करते किशोर अभिनेता नहीं बल्कि रीयल लगे है। प्रेमी की देवी को सुरों के अर्घ्य चढ़ाता बंजारा। लीना क‍ी खूबसूरती देखिए इस गीत में। बिल्कुल महुए की महक और खिले टेसू। और गीत क्या है ऐसा लगता है जैसे किसी ने शहद में कांटा डुबोकर जुबां में चुभो दिया हो।


गीत के बोल हैं:


हमारी जिद है कि दीवानगी न छोड़ेंगे
हमारी जिद है कि दीवानगी न छोड़ेंगे
न तुम भी कोई क़सर रखना आज़माने में
जुनून ए इश्क भी क्या शै है इस ज़माने में


इस गीत का केवल वीडियो मिला है, इसका आनंद लीजिए:





किशोर कुमार के इन गीतों के प्रति ये केवल मेरी अनुभूति है। हो सकता है आपको वैसा न लगे जैसा मैंने अनुभव किया है। किशोर कुमार पर अधिक जानकारी मनीष कुमारजी ने अपने ब्लॉग पर पर दी है।

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हिन्दी दिवस

>> बुधवार, 16 सितंबर 2009


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
हिन्दी दिवस बीत गया। देशभर में रस्म अदायगी भी हो गई। विभिन्न विभागों ने हिन्दी सप्ताह मना लिया। सरकारी दफ्तरों में सूचना पट्ट पर पुराने नेताओं, साहित्यकारों ये विदेशी विद्वानों के हिन्दी के बारे में वक्तव्य लिखे गए। बैंकों में लिखा 'हिन्दी में चेक स्वीकारे जाते हैं'। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में हिन्दी के लिए प्रतियोगिताएँ आयोजित की गईं। पुरस्कार वगैरह भी बँट गए। फिर...फिर जिन्दगी की धारा रोज़मर्रा की तरह बहने लगी। माताएँ गर्व से कहने लगीं, यू नो, हमारी बेटी तो हिन्दी में इतनी वीऽऽऽऽक है ना कि बस। स्कूलों में हिन्दी में बोलने पर सज़ा, नहीं पनिशमेंट मिलने लगा। जहाँ सजा नहीं होती वहाँ तीन साल का हिन्दी भाषी बच्चा जब स्कूल में उसकी टीचर से हिन्दी में कुछ बोलता है तो वे महोदया उस अलिखित नियम पालन करने में कोताही नहीं बरततीं कि हिन्दी बोलने पर ज़वाब ही नहीं देना है, आखिर झख मारकर अंग्रेजी में ही बोलेगा, जैसी भी आए।

ज़ाहिर है पूरे देश में यही सब हो रहा है, फिर भी इन सबके बीच कुछ ऐसा भी है जिससे एक उम्मीद बँधती है। मैं अपने कार्यालय की बात कर रहा हूँ। देश के मध्य में स्थित मध्यप्रदेश के मालवा प्रांत के इन्दौर शहर, जिसे मिनी ‍मुंबई भी कहा जाने लगा है, में ये सब देखा-सुना है मैंने। पात्रों के नाम पहचान की गोपनीयता की दृष्टि से बदल दिए गए हैं।
सुबोध दासगुप्ता और नूरुद्दीन पश्चिम बंगाल के रहने वाले हैं। दोनों की मातृभाषा बांग्ला है। जब दोनों से मुलाकात होती है तो वे लोग मुझसे हिन्दी में ही बाते करते हैं। सुजय काकाती आसाम के वासी हैं। बस काम के सिलसिले में इन्दौर आना हो गया। धनंजय पात्र और अनिता साहू उड़ीसा के रहने वाले हैं। ये लोग भी मेरे सहकर्मी हैं। ये लोग भी मुझ से हिन्दी में ही बात करते हैं। इस बात पर आप लोग सोच रहे होंगे कि ये तो स्वाभाविक है क्योंकि मुझे तो इन सभी की भाषा आती नहीं है इसलिए उन्हें हिन्दी ही तो बोलना होगी। कुछ लोगों को इसमें भाषाई अल्पसंख्यकता नज़र आ जाए। या फिर हिन्दी भाषी लोगों की दादागिरी भी कह सकते हैं। पर ऐसा कुछ भी नहीं है। चूंकि बंगाली को असमिया समझ में नहीं आती है, तो उड़ियाभाषी के लिए बांग्ला एक अलग भाषा है। इसलिए ये लोग केवल मुझसे ही नहीं आपस में हिन्दी में ही चर्चा करते हैं। मैंने इन्हें कभी भी आपस में अंग्रेजी बोलते नहीं सुना। ज्ञान तो अंग्रेजी का उन्हें पर्याप्त है। वे लोग कार्यालयीन और बाहरी काम यदि अंग्रेजी में होना है तो बखूबी करते हैं, फिर चाहे वह पत्राचार हो, मीटिंग हो या फ़ोन कॉल।

यहाँ पंजाब भी है, रमणीक कौर सलूजा, गुरमीत सिंह ईशार। गुजरात भी है, जयति श्राफ, प्रज्ञा दवे। महाराष्ट्र भी है सुनंदा केलकर, उल्लास खरे, नलिनी देउसकर। कोंकण (गोवा) भी है, शालिनी जानसन। ज़रा रुकिए दक्षिण भारत भी है, केरल से सुज़ा इलियामा जोसेफ़ हैं तो कर्नाकट से जी. रामानुज हैं। हनुमप्पा तमिलनाडु से हैं तो नीलमणि रेड्डी आंध्र प्रदेश से हैं। मुझे छोड़कर अधिकांश लोग अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हैं फिर भी आज ये लोग अपने आपसी संवाद के लिए अंग्रेजी पर निर्भर नहीं हैं। उनका ही ‍कहना है कि अंग्रेजी के बजाए वे लोग हिन्दी में बात करने में ज्यादा सहज अनुभव करते हैं। यह तर्क दिया जा सकता है कि यदि ये सब लोग अहमदाबाद में होते तो गुजराती बोलते या फिर चेन्नई में होते तो तमिल बोलते। यह सही भी हो सकता है, परन्तु शायद गुजराती या तमिल उन्हें सीखनी होती, जबकि ये लोग जब इन्दौर आए तो टूटी-फूटी, कामचलाऊ हिन्दी पहले से ही जानते थे। यहाँ रहकर तो उनकी हिन्दी में केवल निखार आया है।

आप लोग क्या सोचते हैं? क्या हिन्दी देश की संपर्क भाषा नहीं है? क्या श्रेष्ठिवर्ग और हिन्दी के तथाकथित मठाधीशों ने ही हिन्दी को अंग्रेजी की बेड़ियों में जकड़ नहीं रखा है?

चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: हिन्दी, राष्ट्रभाषा, Hindi,




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मेरे बारे में

>> शुक्रवार, 25 मई 2007


विशेष कुछ भी नहीं है मेरे बारे में। एक आम भारतीय, भारत के हृदय स्थल मध्य प्रदेश के मालवांचल में राजा भोज की धारा नगरी (वर्तमान धार शहर) में पैदा हुआ वहीं पर बचपन बीता, शिक्षा भी वहीं पर हुई, और अब यहीं मालव माटी पर देवी अहिल्या के इन्दौर शहर में वेबदुनिया में कार्यरत हूँ। खाली समय में, जो कि आज की दौड़ती भागती जिंदगी में से चुराना पड़ता है, अपने परिवार के साथ बिताना पसंद करता हूँ, फिर भी कुछ खाली रह जाए तो कुछ पढ़ता हूँ, इसके बाद भी समय रहे तो कोरे काग़ज़ पर कुछ आकृतियाँ उकेरने का प्रयास करता हूँ, रेडियो का शौकीन, और कभी कभी टीवी देख कर उस पर भी एहसान कर देता हूँ। पढ़ने में कहानियों और निबंध को प्राथमिकता, विज्ञान गल्प तो बहुत ही पसंद है। इसके बाद कविता, नाटक, उपन्यास आदि पर कृपा की जाती है। वैसे जब पसंदीदा विषय की पुस्तकें पढ़ने को नहीं हो तो किसी भी विषय-धर्म, दर्शन, राजनीति, पर्यावरण, इतिहास, विज्ञान आदि- से काम चला लेता हूँ। फ़िल्में बहुत देखा करता था। रुपहले पर्दे के लिए दीवानगी थी। आज भी फ़िल्में देखता हूँ पर सिनेमा हाल में कम और घर पर सीडी, डीवीडी पर ज्यादा।
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विवशता

>> गुरुवार, 12 अप्रैल 2007

कुछ चिट्ठों पर टिप्पणी देने के लिए ब्लॉगर या गूगल खाते से साइन इन करना होता है। इस विवशता का परिणाम है यह।
यदि यह घर अच्छा लगा तो भविष्य में यहाँ डेरा जमाया जाएगा।
यदि कोई भटकते हुए इस वीरान घर में चला आए तो कृपया मेरे वर्तमान घर मालव संदेश पर चला आए।

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